मोह के समाप्त होते ही जीव उपाधि नष्ट हो जाती है : इंदुभवानंद महाराज
रायपुर। श्री शंकराचार्य आश्रम बोरियाकला रायपुर में चल रहे चातुर्मास प्रवचनमाला के क्रम को गति देते हुए शंकराचार्य आश्रम के प्रभारी डॉ. स्वामी इंदुभवानंद तीर्थ महाराज ने
भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी प्रेमांबा के ललिता सहस्रनाम की व्याख्या करते हुए बताया कि राग अथवा मोह के समाप्त हो जाने पर जीव उपाधि नष्ट हो जाती है और उसको अपने मूल स्वरूप का ज्ञान हो जाने से सच्चिदानंद की अनुभूति हो जाती है।
ब्रह्मांड पुराण में वर्णित ललितोपाख्यान के अनुसार पराम्बा भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी एवं भंडासुर के युद्ध के प्रसंग का वर्णन करते हुए बताया कि भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी की ओर से युद्ध कर रही 64 करोड़ योगनियों के मध्य में जब भण्डासुर ने विध्नयंत्र का प्रक्षेपण किया तो 64 करोड़ योगनियों अपने आप में परस्पर युद्ध करने लगी इस दृश्य को देखकर भगवती राजराजेश्वरी ने अपने पति महाकामेश्वर के मुख का अवलोकन किया। मुख के देखने मात्र से महागणपति की उत्पत्ति हो गई। महागणपति ने योगिनियों की सेना के मध्य पड़े उसे विध्न यन्न को अपनी शुण्डदंड से खोज कर शत्रु भंडासुर की सेना पर पुनः प्रक्षेपित कर दिया परिणामतः है शत्रु सेना परस्पर युद्ध करने लगी। पराम्बा भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुर सुंदरी ने सहज ढंग से ही भंडासुर पर विजय प्राप्त कर ली।

कथा के तत्व के रहस्य को बताते हुए महाराज ने बताया कि भंडासुर जीव भाव कहलाता है। यह आठ पुरी के गढ़ में निवास करता है इसे पुर्यष्टक बोलते हैं। इस पुर्यष्टक का अभिमान होने के कारण से उसे पुरुष कहा जाता है, यही जीव कहलाता है। यह भूत कंचुकी ( पंचभूत पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश के द्वारा निर्मित यह शरीर) के आवरण भंग होने से जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और उसका जीव भाव समाप्त होकर सच्चिदानंद स्वरूप उसको प्राप्त हो जाता है।
ज्ञातव्य हो कि नवरात्रि के प्रथम दिन से ही ललिता सहस्त्रनाम के प्रत्येक नाम की व्याख्या पर प्रतिदिन अनवरत सत्संग चल रहा है। ललिता सहस्रनाम में भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुर सुंदरी की समस्त लीलाओं का ज्ञान हो जाता है। कथा के पूर्व भगवती राजराजेश्वरी की आरती की गई तथा पोथी का पूजन भी किया गया।

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