स्वार्थ हावी होने से परमार्थ समझ नहीं आता : मनीष सागरजी महाराज

स्वार्थ हावी होने से परमार्थ समझ नहीं आता : मनीष सागरजी महाराज

साधना की वृद्धि से ही होगी आत्म शुद्धि

रायपुर। टैगोर नगर पटवा भवन में जारी चातुर्मासिक प्रचवनमाला में बुधवार को परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवा मनीषी श्री मनीष सागरजी महाराज ने कहा कि स्वार्थ परायण,भोग परायण नहीं बनना है। धर्म कार्य में सीमित नहीं रहना है। मोक्ष की साधना करना है। इन चार पुरुषार्थ में मोक्ष का पुरुषार्थ सबसे उच्च है। स्वार्थ हावी होने से परमार्थ समझ नहीं आता।
साधना की वृद्धि से ही आत्म शुद्धि होगी। साधना परायण बनाना होगा। साध्य को पाने के लिए साधना करना है। साधना से साधक का साध्य मोक्ष हासिल करना होना चाहिए।

उपाध्याय भगवंत ने कहा कि मन में स्वार्थ भर जाता है तब धर्म दूर हो जाता है। स्वार्थी व्यक्ति हमेशा अपना हित ही करता है। सबसे पहली गलती वह स्वयं को भूल जाता है। उसे झूठा स्व सच्चा स्व लगता है। मैं कौन हूं, मेरा कौन है यह भूल जाता है। स्वार्थी व्यक्ति केवल आत्म केंद्रित हो जाता है। सच्चे स्व- अर्थी परमात्मा है। परमात्मा ने सच्चे स्व को पहले तलाश किया। सच्चे स्व का हित कैसे होता है उसके लिए पूरा पुरुषार्थ झौक दिया।

उपाध्याय भगवंत ने कहा कि हमने भूल की और झूठा स्व को सच्चा स्व मान लिया है।  देह को स्व मान बैठे और आत्मा को भूल गए। झूठे स्व का हित कर पूरे पुरुषार्थ में पानी फिर जाता है। हम झूठे स्व को सच्चा स्व बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जितना हम झूठे स्वार्थी होते जाते हैं। उतना सच्चे स्व की पहचान कराने वाले से दूर होते रहते हैं। आत्मा की बात बोझिल लगती है। आत्म कल्याण कराने वालों के प्रति रुचि नहीं आती है। जिन वाणी के प्रति समर्पण नहीं आता । अच्छी नीतियों की बात होती है तो नींद आती है।

उपाध्याय भगवंत ने कहा कि
स्वार्थ हावी हो तो परमार्थ को समझ नहीं सकते। हमें धर्म में रूचि बढ़ाना है। ऐसा मत सोचो कि धर्म तो करना है लेकिन अधिक नहीं करना है। धर्म नापतौल कर मत करो।  सीमित दायरे में धर्म नहीं करना है। ऊपर उठने का प्रयास करना है। 10 साल से पूजा कर रहे यह उपलब्धि है। इससे ऊपर नहीं उठाना कमजोरी है। वहीं के वहीं सीमित नहीं होना है। हमेशा ऊपर उठने का पुरुषार्थ करना है।

उपाध्याय भगवंत ने कहा कि
दो प्रकार की संपत्ति है।।एक बाहर के धन दौलत आदि और दूसरा भीतर की सन्मति। सन्मति अर्थात सही ज्ञान। सन्मति रूपी संपदा का उपयोग करना ही समझदारी है। साधना के क्षेत्र में सन्मति आ जाए तो धर्म के क्षेत्र में इसकी सार्थकता है। तभी देव,गुरु और धर्म से जुड़ाव होगा। तभी मति सन्मति हो जाएगी। आत्म कल्याण संभव हो पाएगा। वर्तमान के साथ भविष्य भी सुधर जाएगा।